छात्र क्रांति की आड़ में मजहबी क्रान्ति का शिकार हुआ बांग्लादेश

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नई दिल्ली (करुणा नयन चतुर्वेदी) पिछले दिनों हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश में क्रांति हुई। इस क्रांति ने बांग्लादेश में तख़्तापलट किया। एक ख़ास वर्ग / बुद्धिजीवियों ने इसे बांग्लादेशी लोकतन्त्र की जीत घोषित कर दिया। लेकिन इसे केवल क्रांति कहना, उन पूरे क्रांतिवीरों की तौहीन है। क्योंकि यह क्रांति की आड़ में मजहबी क्रान्ति थी।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जीतकर आयी प्रधानमंत्री के आवास पर हमला हुआ। हिंसक भीड़ ने जहां पूरे आवास को लूटा। वहीं उनके अंगवास्त्रों को विजय पताका की तरह फहराया। भारत में बैठा एक समूह यह दृश्य देखकर खुश हुआ। उन लोगों कि संवेदनाएं मर चुकी हैं। जिस हिंसक भीड़ ने हिन्दुओं की नृशंस हत्या की। उनका घर लूटा। हिंदू महिलाओं के साथ वहां लगातार दुर्व्यवहार हो रहा है। लेकिन मजाल यहां बैठे उदारवादियों का कि वह इसपर कुछ लिखें या बोलें। इनके अनुसार बांग्लादेश में भारत से ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्य जीवित हैं। फिर वे लोग उस मूल्यों की आलोचना कैसे कर सकते हैं।

छात्र आंदोलन की आड़ में तख्तापलट हुआ। छात्रों की मानसिकता देखिए कि जिस बंगबधु मुजाहिबुर्रहमान ने इन्हें आज़ाद मुल्क दिया। उसी आवाम ने उनकी मूर्ति को ध्वस्त किया। यहां तक की उनके प्रतिमा पर मुत्रविसर्जित किया। इन छात्रों की नीचता यहीं नहीं रुकी। इन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की मूर्तियां तोड़ी। धार्मिक अल्पसंख्यकों ख़ासकर दलित हिंदुओं को भी अपने आगोश में लिया।

परंतु भारत में बैठा लिबरल तंत्र इसलिए इसका विरोध नहीं कर रहा है। क्योंकि इसी बहाने उन्हें ‘तानाशाह मोदी’ के खिलाफ़ एक और हमला करने का मौका मिल गया। बांग्लादेश में व्याप्त अशांति को वह भारत में भी पैदा करना चाहते हैं। जब इजराइल ने रफाह पर हमला किया तो यहां के लोगों ने ग़ज़ब का माहौल बनाया। तमाम बड़े-बड़े हस्तियों ने इसकी आलोचना की। मुस्लिम बंधुओं के साथ खड़े हुए। लेकिन वही तंत्र मजाल है कि इन हिंदुओं के साथ खड़ा हो।

यहां के क्रांतिकारियों की क्रांति सिगरेट के धुएं के साथ ऊपर उठता है तथा उसकी राख के साथ ही जमींदोज हो जाता है। उन्हें बस अपना हित साधना है। अगर मुद्दा उनके एजेंडा में फिट नहीं होगा, तो उनका हलक सूख जाता है। कलम की क्रांति शांत हो जाती है। अगर इनको ज़रा भी विचारधारा का ज्ञान होता तो यह आरक्षण , अल्पसंख्यक अधिकार और समानता के लिए खड़ी होने वाली सुधारवादी नेता शेख़ हसीना के खिलाफ़ हजहबी क्रांति का कतई साथ नहीं देता।

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