मिस्र के शर्म-अल-शेख में 6 से 18 नवंबर 2022 के मध्य चले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (COP-27) के वैश्विक मंथन को इस दशक की एक बड़ी बौद्धिक घटना माना जाएगा। विकास और पर्यावरण संदर्भों में पृथ्वी पर मानव आचरण के लिए दीर्घकालिक रणनीति का रोडमैप तय करने की दिशा में इस सम्मेलन में बनी सहमति मानवीय भविष्य के लिए एक मीलका पत्थर साबित होगी।
विश्व भर में वर्ष-2022 के पहले 10 माह जलवायु आपदाओं के बड़े पैमाने पर साक्षी बने हैं। इससे स्पष्ट है कि आज कोई भी देश या क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से अछूता नहीं है। स्थानीय, व्यापक आपदा राहत एवं न्यूनीकरण, अनुकूलन एवं हानि के लिए जलवायु वित्त प्रावधानों और समयबद्ध कार्ययोजना सीओपी-27 सम्मेलन के लिए चेतावनी चुनौती रहेगी। वर्ष 2022 की विश्वव्यापी आपदाएं जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से और अधिक बिगड़ती स्थिति का संकेत हैं। कोविड उपरांत जीवन व विश्व में में बाढ़, सूखा, अति वृष्टि, तूफान, बर्फबारी, शीतलहर, गर्मी, उष्ण लहर, वनाग्नि, समुद्र तल वृद्धि, हिमनद गलने-पिघलने और भूस्खलन जैसी घटनाओं में अप्रत्याशित और अनचाही वृद्धि ने समस्त संसार की समस्या में बढ़ोतरी की है। इससे हुए जान-माल, संपत्ति और आवास के व्यापक नुकसान ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया है। अब सही समय है कि बदलते विश्व में मानव के गैर-अनुशासित विकास की गति व दिशा, अनियंत्रित उत्पादन तकनीक, स्वच्छंद उपभोक्ता व्यवहार और लापरवाह पर्यावरण सुरक्षा व बोध के प्रति निश्चित व प्रभावी नियामक निर्देश तय हों।
शाश्वत और हरित ऊर्जा संबंधी वित्तीय बाजारों और ऊर्जा वित्त विषय के जानकार विक्टर ताचेव ने अपने विश्लेषण में बताते हैं कि ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ समूह द्वारा ‘छिपने की कोई जगह नहीं’ जलवायु परिवर्तन प्रभावों की निगरानी रिपोर्ट-2022 के नवीनतम जलवायु परिवर्तन प्रभावों के अध्ययन के निष्कर्ष दुनिया भर में हुई भयानक चरम घटनाओं व उनके परिणामों की गंभीर स्थिति की ओर संकेत करते हैं। इस महत्वपूर्ण अध्ययन में उन 14 चरम मौसम की घटनाओं को शामिल किया गया है, जिनके कारण वर्ष-2022 वैश्विक जलवायु परिवर्तन प्रभावों के संबंध में सबसे क्रूरतम वर्षों में से एक बन गया है। इन घटनाओं ने साबित किया है कि कनाडा, अमेरिका और चीन, रूस, जापान से लेकर भारत, पाकिस्तान, तुर्की, ब्राजील, कोरिया, आस्ट्रेलिया और भूमध्य सागर तक जलवायु परिवर्तन भयावहता की कोई सीमा नहीं है।
इंपीरियल कॉलेज लंदन, ग्रांथम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज एंड द एनवायरनमेंट में जलवायु विज्ञान संस्थान में वरिष्ठ व्याख्याता फ्राइडरिक ऑटो का कहना है कि हाल में अमेरिका और यूरोप में अत्यधिक सूखा, ब्रिटेन और भारत में गर्मी की लहरें और पाकिस्तान में बाढ़ इस बात का ध्यान दिलाती है कि दुनिया के संपन्न देशों में भी असुरक्षित समुदायों की मौजूदगी है और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित मौसम की घटनाओं से कोई भी अछूता नहीं रह सकता। हर आने वाले दिन के साथ विश्व में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ते रहने से होने वाले नुकसान और भी बदतर होते जाएंगे। इस अध्ययन से साफ होता है कि यूरोप को इस वर्ष पिछले 500 से अधिक वर्षों में सबसे खराब सूखे का सामना करना पड़ा, जिससे इस महाद्वीप का 17% भाग चेतावनी की स्थिति में आ गया। यह सूखा जंगलों की आग का कारण बना साथ ही इससे कृषि, फसलों, उत्पादन में कमी आई और यूरोप की ऊर्जा प्रणाली भी बड़े पैमाने पर बाधित हुई। अकेले ब्रिटेन में पहली बार तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रिकॉर्ड किया गया। यह घटना इतनी दुर्लभ व अप्रत्याशित थी कि मौसम विज्ञानियों ने गर्मी को असाधारण के रूप में वर्गीकृत किया।
चीन ने भी इस वर्ष सबसे लंबी और सबसे विनाशकारी गर्मी की लहरों का अनुभव किया, जिसमें तापमान 70 दिनों तक 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। उसने 17 प्रांतों में 900 मिलियन लोगों को प्रभावित किया है, जिससे जलविद्युत संयंत्र और कई व्यवसाय बंद रहे। जुलाई के उच्च तापमान के प्रभाव के कारण चीन में 377 मिलियन अमरीकी डालर से अधिक का नुकसान आंका गया जिससे 5.5 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। स्वयं सबसे अधिक विकसित जीवनशैली वाले अमेरिका को 1,200 वर्षों में सबसे खराब अति सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ा। यहां अकेले सितंबर में 61 मिलियन से अधिक लोग अत्यधिक गर्मी की एडवाइजरी ‘सलाह’ के लिए चेतावनी पर थे। मौसमी बदलाव की अनिश्चितता के कारण अगस्त में दक्षिण कोरिया के 80 वर्षों में सबसे खराब बाढ़ झेलनी पड़ी, जिसमें वहां कुछ ही दिनों में एक साथ समान्यत महीने भर की बारिश हुई। इससे हुए नुकसान को 100 मिलियन अमरीकी डालर से ऊपर आंका गया है। सप्ताह ही बाद, यहां दक्षिण भाग में एक तूफान आया, जिससे लगभग 1.4 बिलियन अमरीकी डालर का नुकसान हुआ।
इसी प्रकार से सेंट्रल टोक्यो ने 1875 में रिकॉर्ड-कीपिंग शुरू होने के बाद से पहली बार 35 डिग्री सेल्सियस से ऊपर के तापमान के साथ दिनों की सबसे लंबी लकीर श्रृंखला का अनुभव किया। इस वर्ष मानसून व इसके उपरांत अत्यधिक बाढ़ की घटनाओं के कारण पाकिस्तान का एक तिहाई से अधिक भाग जलमग्न हो गया था। 33 मिलियन से अधिक लोग विस्थापित हुए, जबकि मरने वालों की संख्या 1,500 से अधिक हो गई। देश में मार्च में तापमान रिकॉर्ड तोड़ने के कुछ ही समय बाद बाढ़ आई, जबकि औसत से 62% कम बारिश देखी गई। भारत में भी इस बार लोगों को वसंत ऋतु में 46-49 डिग्री सेल्सियस के तापमान का सामना करना पड़ा और भारत में जलवायु आंकड़ों के रिकॉर्ड के 122 वर्षों में यह सबसे ‘गर्म मार्च’ का सामना किया गया। देश में औसत से 71 फीसदी कम बारिश के साथ यह महीना भी बेहद शुष्क रहा। ‘लू’ ने देश के 70% हिस्से को प्रभावित किया। इस वर्ष उत्तर भारत में मानसून की वर्षा मध्य अक्तूबर महिने तक होती रही।
ऑस्ट्रेलिया में भी बाढ़ से कुल 3.5 बिलियन अमरीकी डॉलर का नुकसान हुआ, जो देश की सबसे महंगी प्राकृतिक आपदाओं में से एक बताया गया है। ऑस्ट्रेलियाई लोगों को आने वाले महीनों में और अधिक गंभीर जलवायु परिवर्तन प्रभावों और तूफानों के लिए खुद को तैयार करने व रहने की चेतावनी दी गई।
दक्षिण अफ्रीका में मात्र दो दिनों की भीषण वर्षा और इसके परिणामस्वरूप आई बाढ़ ने 40,000 से अधिक लोगों को विस्थापित कर दिया और 12,000 घरों को नष्ट कर दिया। सड़कें, स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल भी बुरी तरह प्रभावित हुए। ब्राजील के कुछ राज्यों में 70% से अधिक बारिश हुई, जो आमतौर पर मई महीने में होती है, केवल 24 घंटों में हो गई। इसके कारण सैकड़ों मौतें हुईं और 25,000 से अधिक लोग विस्थापित हुए। कुछ क्षेत्रों में, गंभीर सूखे ने कृषि सकल घरेलू उत्पाद का 8% मिटा दिया। नुकसान और फसल का नुकसान 9.2 बिलियन अमरीकी डालर से अधिक हो गया।
इसके अतिरिक्त उतरीं वह दक्षिण ध्रुव से सूक्ष्म जलवायु अध्ययन से वहां के पारिस्थितिक तंत्र में हुआ बदलाव अन्य चिंताओं को जन्म दे रहे हैं। 21वीं सदी के प्रथम चतुर्थांश में कृषि, स्वास्थ्य, उद्योग, रोजगार, यातायात, निस्तारण और नगरीकरण जैसे पक्षों ने विश्व भर में अलग अलग ढंग से समस्याओं का सृजन कर इस ग्रह के पर्यावरणीय संकट को बढ़ावा दिया है। विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि ग्लोबल वार्मिंग और चरम मौसम की घटनाओं से “सबसे गरीब कमजोर लोग सबसे ज्यादा” प्रभावित होंगे। वैज्ञानिकों का मत स्पष्ट हैं कि प्रति व्यक्ति कम सकल घरेलू उत्पाद वाले देश (जैसे सबसे कम विकसित या छोटे, विकासशील द्वीप देश) जलवायु परिवर्तन के कारण स्थायी नुकसान और क्षति के अधिक खतरे की स्थिति में हैं।
परिणामत: वैश्विक जलवायु संकट के लिए सबसे कम जिम्मेदार होने के बावजूद, निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लोग सबसे अधिक प्रभावित होंगे। अनुमान बताते हैं कि इन देशों के लोगों के अचानक चरम मौसम की घटनाओं से उच्च आय वाले देशों के लोगों के विस्थापित होने की संभावना लगभग पांच गुना अधिक है। उनके अत्यधिक गर्मी से भी पीड़ित होने की संभावना भी सर्वाधिक है। अधिक चिंताजनक करने वाली बात यह है कि इन ‘अति संवेदनशील’ क्षेत्रों की आबादी में बाढ़, सूखे और तूफान के कारण मरने की संभावना ‘बहुत कम जोखिम’ वाले क्षेत्रों की तुलना में 15 गुना अधिक है और आईपीसीसी की जलवायु परिवर्तन 2022: प्रभाव, अनुकूलन और भेद्यता, रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 3.3 बिलियन लोग अब भी जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील दशा में हैं।
यहां विश्व के प्रभावशाली देशों और सबसे कमजोर देशों में एक बात समान है। यह दोनों ही जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से पीड़ित हैं। अंतर मात्र यह है कि, जबकि प्रभावशाली लागत वहन कर सकता है, कमजोर देश इसे वहन करने में असमर्थ हैं। ‘जलवायु राजनीति’ के वाहक विकसित और प्रभावशाली देश देश दुनिया के मुख्य प्रदूषक हैं। वे ग्रीनहाउस गैसों और कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन करते हैं। ऐसे में, सबसे कमजोर लोगों को कार्य करने और उनकी रक्षा करने की नैतिक जिम्मेदारी है। नैतिक कारकों की अनदेखी करते हुए भी, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अपने स्वार्थ के लिए काम करना पड़ता है, क्योंकि वे जलवायु आपदाओं के कारण अरबों डॉलर के नुकसान का सामना कर रहे हैं। क्लाइमेट ट्रेंड्स के अध्ययन में विश्लेषण की 14 घटनाओं ने वैश्विक जीडीपी के मामले में सामूहिक रूप से अरबों का नुकसान कर दिया है। ओईसीडी के अनुसार जलवायु परिवर्तन से संबंधित नुकसान से बचने बात हो तो इन प्रभावशाली देशों का जीडीपी पर शुद्ध सकारात्मक प्रभाव व योगदान 2050 तक 4.7% रहेगा। नुकसान में इनके द्वारा होने वाली भागीदारी वर्ष 2100 तक 8% से अधिक तक पहुंच सकता है जो इन प्रभावशाली देशों के कोविड -19 के समय के आर्थिक नुकसान से दोगुना तक जा सकता है।
अधिक भयावह बात यह है कि गंभीर प्रभावों की यह लंबी सूची है जो हम केवल 1 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने पर देख रहे हैं। लेकिन अगर तापमान बढ़ता रहेगा, और सबसे धनी देशों में भी खतरे और प्रतिक्रिया के बीच बहुत बड़ा अंतर है। टेलर डिम्सडेल, निदेशक, रिस्क ऐंड रेजिलिएंस, E3G कहते हैं कि पता है कि प्रभावशाली देश तैयार नहीं है लेकिन अभी भी आने वाली सबसे खराब स्थिति से बचने में देर नहीं हुई है, जबकि 2022 तक केवल पांच प्रभावशाली देशों ने नई जलवायु योजनाएँ प्रस्तुत की हैं। क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर के अनुसार, अधिकांश प्रभावशाली देशों के पास 1.5°C पेरिस समझौते के अनुकूल लक्ष्य भी नहीं हैं। इसके अलावा, भारत, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे प्रमुख उत्सर्जक “अत्यधिक अपर्याप्त” श्रेणी में आते हैं। आज आवश्यकता है हानि और क्षति वित्तपोषण को प्राथमिकता देने की, जबकि संकेत हैं कि यूक्रेन युद्ध और इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न भोजन, ऊर्जा और आर्थिक अस्थिरता के कारण में जलवायु संकट विषय चिंता व चर्चा की प्राथमिकता में पिछड़ रहा है।
हालाँकि, सभी प्रभावशाली देशों के लिए यह आवश्यक है कि वे इस संकट में उदाहरण बन अग्रणी बन शमन, अनुकूलन और हानि और क्षति के लिए डीकार्बोनाइजेशन और जलवायु वित्त पर वास्तविक प्रगति प्राप्त कर पहल करें। संयुक्त राष्ट्र आज दुनिया में दक्षिण एशिया जैसे कमजोर क्षेत्रों के विषेषज्ञों के साथ मिलकर पहले से हो रहे नुकसान और क्षति वित्तपोषण के महत्व पर अलार्म बजा रहा है। डेनमार्क और जर्मनी जैसे विकसित देश सीओपी-27 सम्मेलन से पहले ही अपने प्रयासों में प्रतिबद्धता दिखा चुके हैं हैं। हालांकि, नुकसान और क्षति का विषय अभी भी एक अस्थायी एजेंडा है। जानकारों के मुताबिक कोई भी प्रभावशाली देश इस पर वीटो कर सकता है और इस पूरे डायलॉग व प्रयास को असफल कर सकता है। ऐसी स्थिति दुनिया भर में कमजोर देशों के वर्तमान और भविष्य लिए एक विनाशकारी झटका साबित होगी और एक और चेतावनी होगी कि उन्हें अकेले ही वैश्विक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटना होगा। अनुमानों के अनुसार, इन परिस्थितियों में 2030 तक अकेले विकासशील देशों के लिए नुकसान और क्षति की अनुमानित कुल आर्थिक लागत 290-580 बिलियन अमरीकी डालर के बीच रहेगी। 2050 तक, यह 1.1-1.7 ट्रिलियन अमरीकी डालर तक पहुंच जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरस ने चेताया कि ग्लोबल वार्मिंग और हिम पिघलने से यदि प्रभावशाली देशों का एक तिहाई भाग आज जलमग्न हो जाए, जैसा कि आने वाले समय में हो सकता है, तो शायद उनके लिए उत्सर्जन में भारी कटौती पर सहमत होना आसान होगा। हम सभी के लिए यह सबसे अच्छा होगा कि हम और अधिक प्रतीक्षा न करें और आने वाली कठिन स्थिति से निबटने के लिए आज ही कुछ कठोर उपाय व ठोस मार्ग तलाशें।
(लेखक – प्रो. वीएस नेगी , वर्तमान में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में एसोसिएट हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह सांध्य कॉलेज में भूगोल एवं पर्यावरण विषय के प्रोफेसर हैं।)
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